नई दिल्ली: गाडी़ या किसी सामान के चोरी हो जाने या आग में जल जाने से चोट खाए कंज्यूमर को उम्मीद होती है कि बीमा से उसके नुकसान की भरपाई हो जाएगी। जब वह मामला लेकर बीमा कंपनी के पास जाता है तो कंपनी वाहन की मौजूदा कीमत का खुद आकलन करती है और कई बार तो वाहन की आधी से कम कीमत की भरपाई करती है।
दिल्ली राज्य उपभोक्ता आयोग ने अपने आदेश में बीमा कंपनियों की इस तरह की मनमानी पर रोक लगा दी है। आयोग का कहना है कि बीमा कंपनी को वाहन के एवज में उतनी ही रकम देनी होगी जितनी बीमा कराते समय तय की गई थी। बीमा कंपनी निजी वाहन के मामले में 5 फीसदी सालाना और कमशिर्यल वाहन के मामले में अधिकतम 10 फीसदी सालाना डेप्रिशिएशन कॉस्ट जोड़ सकती है।
आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जेडी कपूर ने अपने आदेश में कहा, 'बीमा पॉलिसी जारी करते समय किसी सामान या वाहन की कीमत तय हो जाने और प्रीमियम का भुगतान हो जाने के बाद बीमा कंपनी सामान की कीमत का दोबारा आकलन नहीं कर सकती। ऐसे मामलों में वाहनों की कीमत का आकलन निजी वाहनों के मामले में सालाना 5 फीसदी की गिरावट और कमशिर्यल वाहनों की कीमत में 10 फीसदी सालाना की गिरावट के आधार पर करना चाहिए। अगर बीमा कंपनियां ऐसा नहीं करतीं, तो पॉलिसी लेते समय वाहन की कीमत फिक्स करने का कोई महत्व नहीं रह जाता और न ही तय प्रीमियम लेने का कोई आधार बनता है।'
इस मामले में के आर सेहरावत ने एक टाटा डंपर खरीदा था। उन्होंने नेशनल इंश्योरेंस कंपनी में वाहन का 7 लाख रुपए का बीमा कराया। बीमा अवधि के दौरान ही डंपर चोरी हो गया और उन्होंने वाहन चोरी होने की रिपोर्ट दर्ज कराई। उन्होंने वाहन की कीमत का भुगतान करने के लिए बीमा कंपनी में दावा किया।
कंपनी ने उपभोक्ता का दावा स्वीकार किया और मामले की जांच के लिए सवेर्यर तैनात किया। सवेर्यर की तरफ से क्लीन चिट मिलने के बावजूद कंपनी कोई न कोई वजह बताकर आनाकानी करती रही। बाद में कंपनी ने एक और सवेर्यर तैनात किया और वाहन की कीमत 5,68,000 रुपए आंकी। उपभोक्ता ने इस रकम को नाकाफी बताते हुए आयोग में इसकी शिकायत की।
इस मामले में सेहरावत को नौ साल बाद न्याय मिल सका है। सेहरावत का डंपर 11 सितंबर, 1999 को चोरी हुआ था। आयोग ने बीमा कंपनी को आदेश दिया कि वह 7 लाख रुपए में से 10 फीसदी डेप्रिशिएशन कॉस्ट काट ले। इसके अलावा, उसे भुगतान में हुई देरी के लिए 9 फीसदी की दर से ब्याज चुकाना होगा, साथ ही उपभोक्ता को 10,000 रुपए कानूनी खर्च के तौर पर देने होंगे।
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