भारतीय जीवन बीमा निगम की जीवन आस्था योजना को मिली भारी प्रतिक्रिया को किस तरह लिया जाए? क्या यह एक बेहतरीन उत्पाद तैयार करने के लिए एलआईसी को ग्राहकों द्वारा दिया गया 8000 करोड़ रुपए से ज्यादा का उपहार है ? या फिर कुछ चालाकी से और कम पारदर्शिता से बेची गई एक स्कीम का नतीजा? हमारा जवाब दोनों में ही है। एलआईसी ने निश्चित तौर पर एक ऐसा उत्पाद बनाया जो अनिश्चित दौर के लिए सबसे उपयुक्त है और बाजार की नब्ज पकड़ता है- एक ऐसा उत्पाद जो निश्चित रिटर्न का वादा करता है। इसके बावजूद एलआईसी की भारी कामयाबी इस वजह से भी रही कि उसने इस योजना के लाभ के बारे में उतनी पारदर्शिता नहीं बरती है, जितनी उससे उम्मीद की जाती है।
दुर्भाग्य ही कहेंगे कि बीमा रेगुलेटर इरडा ने भी ठीक अपनी नाक के नीचे हुई इस योजना की भारी-भरकम खरीद के प्रति अपनी आंखें बंद रखीं। सतह पर देखें तो जीवन आस्था एक सिंगल प्रीमियम अश्योरेंस योजना है जिसमें परिपक्वता या मौत पर लाभ की गारंटी दी गई है। एक ऐसे माहौल में जहां बैंकों ने फिक्स्ड डिपॉजिट पर ब्याज दरें घटा दी हों, ऐसा लगता है कि यह योजना दोनों ही जरूरतों को पूरी करती थी- एफडी के मुकाबले बेहतर करमुक्त रिटर्न और साथ में बीमा कवर। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इसे इतनी भारी प्रतिक्रिया क्यों मिली, हालांकि सतर्क तरीके से गणना की जाए तो सालाना रिटर्न अधिकतर मामलों में 6.75 फीसदी से 7.25 फीसदी के बीच बैठता है!
हमने हमेशा निवेशकों के तईं ज्यादा फाइनांशियल लिटरेसी और कंपनियों के स्तर पर अधिक ट्रांसपेरेंसी की वकालत की है। इसके बावजूद इसमें शक पैदा होता है कि ठीक-ठाक जानकारी रखने वाले निवेशक भी आखिर क्यों नहीं उस परदे के पीछे झांक सके, जिस पर एलआईसी ने लाभ की मुहर लगा रखी थी। मसलन, यदि किसी बीमा योजना पर देय प्रीमियम तय राशि के 20 परसेंट से ज्यादा होता है, तो बीमा की प्रक्रिया करारोपण के योग्य हो जाती है। जीवन आस्था के मामले में एकल प्रीमियम मेच्योरिटी राशि से कई मामलों में 20 परसेंट से ज्यादा बैठता है और इस तरह मेच्योरिटी राशि पर टैक्स लगना लाजिमी हो जाता है। एलआईसी ने यही बात छुपाए रखी। यह समय की दरकार है कि बाजार के खिलाड़ी निवेशकों के साथ चूहा-बिल्ली की दौड़ खेल कर पैसे बनाना छोड़ें। यदि ऐसा नहीं होता है, तो नियामक संस्थाओं को तत्काल दखल देना चाहिए और उन्हें ऐसा करने को बाध्य करना चाहिए।
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